पहली नज़र मे तो आज लगा कि मामला गड़बड़ है. पर बात डिपेंड करती है सबूतों पर. किस तरह के सबूत हैं ओर उनकी क्या वेलिडिटी है. अगर सच मे सबूत हैं तो भी क़ानून का अपना प्रोसेस है. हर चीज़ मे वक़्त लगता है. वकील भी होंगे, दलीलें भी होंगी, तब कहीं जा कर कोई फ़ैसला होगा, वो भी अगर हुआ तो. ऐसे मे पहले ही दिन ये बोल देना कि शाम तक इस्तीफ़ा दे दो नही तो कॉलर पकड़ कर तिहाड़ मे डाल दूँगा, कुछ ज़्यादा ही होता लग रहा है. आप सच बोल रहे हो या झूट, किसी भी हालत मे आप क़ानून से उपर तो नही हो सकते. आपने अपने इल्ज़ाम लगा दिए, अब देखी क़ानून क्या कहता है. इल्ज़ामों के बाद अब जोश नही होश और संयम की ज़रूरत है ताकि बात को सही ढंग से पेश किया जा सके. क्योंकि क़ानून का तो यही कहना है कि कातिल भले छूट जाए, लेकिन, किसी निर्दोष को सज़ा नही होनी चाहिए.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment